Sources: Quick Review of Status of Juvenile Justice System, National Legal Services Authority, January 2019; PRS.
एक्ट को लागू करने से जुड़े मुद्देविभिन्न अदालतों और स्टैंडिंग कमिटीज़ ने 2015 के एक्ट को लागू करने से संबंधित कई समस्याओं का जिक्र किया और कुछ सुझाव दिए। एक्ट के कार्यान्वयन से जुड़ी मुख्य समस्याओं में निम्न शामिल हैं:
निकायों की उपलब्धता और क्षमता में कमी
2015 के एक्ट में हर जिले में एक या एक से अधिक किशोर न्याय बोर्ड (जेजेबी) और बाल कल्याण कमिटी (सीडब्ल्यूसी) का प्रावधान है। 1 मानव संसाधन विकास संबंधी स्टैंडिंग कमिटी (2015) ने कहा था कि 2000 के कानून के अंतर्गत गठित जेजेबी और सीडब्ल्यूसी सहित दूसरे वैधानिक निकाय कई राज्यों में नहीं थे।[9] अनेक निकाय कागजों पर मौजूद थे और काम नहीं कर रहे थे। इसके अतिरिक्त बड़ी जनसंख्या वाले जिलों में पर्याप्त सीडब्ल्यूसी नहीं थीं, जहां ज्यादा मामले होने की संभावना थी।
राष्ट्रीय विधि सेवा अथॉरिटी (2019) ने कहा था कि 35 में से सिर्फ 17 राज्य/केंद्र शासित प्रदेशों में एक्ट के अंतर्गत अपेक्षित बुनियादी संरचनाएं और निकाय मौजूद थे (तालिका 1)।[10] उदाहरण के लिए बिहार, असम और हरियाणा के किसी जिले में सीडब्ल्यूसी नहीं हैं। 10 मानव संसाधन विकास संबंधी स्टैंडिंग कमिटी (2015) ने कहा था कि सीडब्ल्यूसी और जेजेबीज़ के पास अपने वित्त और मानव संसाधनों के प्रबंधन का अधिकार नहीं है और वे राज्य या जिला प्रशासन पर निर्भर हैं। इंफ्रास्ट्रक्चर या विशेष फंड्स न होने के कारण उनकी पहल सीमित होती है और उसमें देर होती है। 9 कमिटी ने विभिन्न निकायों के लिए वित्तीय आबंटन, प्रशिक्षण और कैडर निर्माण का सुझाव दिया था।
बाल देखरेख संस्थान (सीसीआई): सीसीआई ओपन शेल्टर्स और विशेष एडॉप्शन एजेंसियों सहित ऐसे संस्थानों को कहा जाता है जो ऐसी सेवाओं की जरूरत वाले बच्चों को देखभाल और सुरक्षा प्रदान करते हैं।[11] सीसीआईज़ की रिव्यू एक्सरसाइज से संबंधित कमिटी (2018) ने कहा था कि कई सीसीआईज़ बच्चों को बुनियादी सेवाओं भी नहीं प्रदान करतीं जैसे अलग से बिस्तर, उचित पोषण और भोजन।[12] 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाव दिया था कि राज्य सरकारों को सभी सीसीआईज़ का मूल्यांकन करना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो कि देखभाल के न्यूनतम मानकों का अनुपालन किया जा रहा है।[13] कमिटी ने यह भी कहा कि 2015 के अंतर्गत रजिस्ट्रेशन अनिवार्य होने के बावजूद देश के केवल 32% सीसीआईज़ रजिस्टर्ड थे। 12 सर्वोच्च न्यायालय (2017) ने सुझाव दिया था कि सीसीआईज़ के सभी बच्चों को अनिवार्य रूप से रजिस्टर्ड होना चाहिए और इस डेटा को सत्यापित और मान्य किया जाना चाहिए।[14]
उच्च न्यायालयों की भूमिका: 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रत्येक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों से अनुरोध किया था कि कानून के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए अपने खुद के प्रस्ताव पर प्रक्रियाओं को दर्ज करें। 13 2017 में अदालत ने सुझाव दिया था कि हर जिले में किशोर न्याय कमिटियां बनाई जानी चाहिए और उनमें उच्च न्यायालय के न्यायाधीश होने चाहिए जिन पर बच्चों के मानवाधिकारों के संरक्षण की संवैधानिक बाध्यता है। 14
एडॉप्शन में देरी
2015 का एक्ट सेंट्रल एडॉप्शन रिसोर्स अथॉरिटी (कारा) को भारत में एडॉप्शंस को रेगुलेट और बढ़ावा देने की शक्ति देता है। 1 2017 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा था कि कारा ने समय रहते उन बच्चों की सिफारिश नहीं की जो एडॉप्शन के लिए कानूनी रूप से स्वतंत्र थे।[15] अदालत ने सुझाव दिया था कि अथॉरिटी की स्टीयरिंग कमिटी, कारा के कामकाज का निरीक्षण और जांच कर सकती है। 1 इसके अतिरिक्त देरी के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए। 15
उल्लेखनीय है कि 2013-14 से देश में हर साल कुल 3,500 से 4,500 के बीच एडॉप्शंस किए जाते हैं।[16] जून 2019 में माता-पिता के बिना, परित्यक्त या आत्मसमर्पण करने वाले 6,971 बच्चे विशेष एडॉप्शन एजेंसियों में रह रहे थे।[17] इसके अतिरिक्त 1,706 बच्चे इन एजेसियों से जुड़ी सीसीआईज़ में रह रहे थे। 17
कानून से संघर्षरत किशोर
अपराध की घटनाएं: भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) के अंतर्गत किसी व्यक्ति को अपराध के लिए आरोपित करने की आयु सात वर्ष है। [18] गिरफ्तार बच्चों की कुल संख्या 2009 में 33,642 से बढ़कर 2019 में 38,685 हो गई, जिसमें 15% की वृद्धि है। इनमें से अधिकतर बच्चे 16-18 वर्ष के आयु वर्ग के हैं।[19] आधे से अधिक बच्चों को चोरी, चोट पहुंचाने, सेंधमारी और दंगों जैसे अपराधों के लिए गिरफ्तार किया गया था।
रेखाचित्र 1: आयु वर्ग के आधार पर गिरफ्तार किशोर
Sources: Crime in India, 2009-2019, National Crime Records Bureau; PRS.
रेखाचित्र 2: किशोरों द्वारा किए गए अपराध (आईपीसी के अंतर्गत)
नोट: अन्य में हत्या की कोशिश, धोखाधड़ी, ब्लैकमेलिंग, डकैती और रैश ड्राइविंग शामिल हैं।
Sources: Crime in India, 2009-2019, National Crime Records Bureau; PRS.
मामलों का लंबित होना: 2009 में कानून से संघर्षरत बच्चों से जुड़े 43% मामले लंबित थे जोकि 2019 में 51% हो गए (रेखाचित्र 3)। 19 दोषियों की कुल संख्या 2009 में 52% से घटकर 2019 में 43% हो गई, जबकि बरी होने वालों की संख्या 10% से कम रही। 19
रेखाचित्र 3: कानून से संघर्षरत बच्चों के खिलाफ दायर मामलों के निपटान की स्थिति
Sources: Crime in India, 2009-2019, National Crime Records Bureau; PRS.
तालिका 2 में कानून से संघर्षरत बच्चों और देखभाल एवं संरक्षण की जरूरत वाले बच्चों के रेगुलेशन के आधार पर विभिन्न देशों के किशोर न्याय कानूनों की तुलना की गई है।
तालिका 2: विभिन्न देशों के किशोर न्याय कानूनों के बीच तुलना
देश
युनाइडेट किंगडम
दक्षिण अफ्रीका
फ्रांस
कनाडा
जर्मनी
ऑस्ट्रेलिया
भारत
आरोपित करने हेतु किशोर की न्यूनतम आयु